Tuesday 6 November 2012

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                                          तालिब-ए-इल्म  हूँ उर्दू का खता मेरी है,
                         अब मुझे नौकरी हरगिज़ नहीं मिलने वाली।                           
   मलिकज़ादा जावेद का यह शेअर वर्तमान मे  उर्दू जुबान के मसायल की सही तर्जुमानी करता है, यह जुबान  हिंदुस्तान की उन आहम जुबानो मे से एक है जिन के दमन मे  सर ज़मीने  हिन्द की सैकड़ो सालों की तारिख  है, जब भारत का इतिहास लिखा जायेगा तो इतिहास कार को सबसे अधिक जिस भाषा के पन्ने पलटने होंगे वह बिलासुभहा उर्दू है इस भाषा से यहाँ के 1000 साल के इतिहास का सम्बन्ध है और सही पूछिए तो यही भाषा भारत मे सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। मगर बदकिस्मती से आज़ादी के बाद इस पर मुस्लमान होने का ठप्पा लगा दिया गया। फिर क्या था, सरकारी कार्यालयों और संस्थाओ से उसे बाहर निकलने का पर्यास शुरू हो गया, फिर वह समय भी आया जब यह भाषा सियासत की शिकार होती दिखाई पड़ी। यू 0 पी 0 मे 1977 मे उसकी याद सबसे पहले उस समय के समाजवादी नेता और कांग्रेसी मुख्मंत्री हेमवती नंदन को आई, उन्होंने नगरीय छेत्र के प्राइमरी स्कूल-ओं मे कुछ उर्दू  टीचर्स की नियुक्तियां की फिर एक लम्बे समय तक किसी ने उसका हाल न पुचा यहाँ तक की यू 0 पी 0 मे  मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाजवादी पार्टी की सहायता से सरकार का गठन किया और उसने उर्दू टीचर्स और उर्दू अनुवादक रखने का एलान किया फिर जब 1994 मई उर्दू टीचर्स की नियुक्तियों के लिए विज्ञापन आया तो यह देख कर उर्दू पढ़े लिखे तबके के बाँछे  खिल गई की उसमे प्राइवेट और गैर सरकारी खर्च से चलने वाले इदारे के सर्टिफिकेट को भी महत्वा दिया गया था।और मोअल्लिम और यू टी सी को भी उर्दू टीचर्स की नियुक्तिया मे  अवसर परदान किया गया था। सच पूछिए तो आम मुस्लमान अगर मुलायम सिंह का गर्वीदा है तो वह केवल इस लिए कि उन्होंने उस तबके को भी ऊपर उठने का मौका दिया था जिसे आज तक नज़र अंदाज़ किया जाता रहा है। उर्दू दानी का असल सेहरा उसी के सर था। आज़ाद भारत मे पहली बार ऐसा हुआ कि वास्तव मे उर्दू दा तबके को सरकारी स्कूल मे उर्दू पढ़ाने का मौका दिया गया है। आपत्तियां भी जताई गई। और कम योग्यता के ताने भी नव नियुक्त उर्दू टीचर्स को सुनाये गए लेकिन समय ने साबित कर दिया कि असल उर्दू दा वही अभियार्थी गण  है जिनका सम्बन्ध मदरसों से रहा है। यही वे लोग थे जिनके पास मोअल्लिम या यू टी सी की डिग्रियां थी। असल बात यह है कि आज़ादी के बाद अगर उर्दू जुबान को कायम व दायम रखा है तो वह मदरसों ने रखा है। क्योकि हमेशा से यहाँ का मीडियम उर्दू रहा है, और इन मदरसों मई अत्यधिक पसमांदा गरीब और निचले तबके के अफराद के बच्चे तालीम हासिल करते है। मदरसों से फारिग हो कर न तो मॉडर्न एजुकेशन के दरवाज़े उन पर खुले होते है और न ही उनकी आर्थिक स्तिथि ऐसी होती है कि वह बी टी सी या बी एड जैसे पाठ्यकर्म की शिक्षा  प्राप्त कर सके। ले दे कर जामिया उर्दू अलीगढ के एम्तेहनात अदीब, माहिर, कामिल और मोअल्लिम आदि और या आल इंडिया उर्दू तालीम घर के फौकानिया, आलिया व यू टी सी और यू टी एड वगैरह कर लेते है। क्योंकि  हज़ार 2 हज़ार  खर्च करके उक्त जैसे इम्तेहानात मई बैठना इन गरीब का नसीब हो जाता है, रही बात बी टी सी या बी एड वगैरह की तो वहां पर वही पहुँच पाता है जो लखपति हो , क्योकि बी टी सी और बी एड करने के लाये लाखो रुपया की ज़रुरत होती है। बी टी सी या बी एड ऐसे अभ्यर्थी करते है जो एक विषय के तौर पर उर्दू पढ़ कर आये है यह ही वह लोग होते है जिन्होंने हाई स्कूल /इंटर के कोर्से मई उर्दू को इश्चित विषय के तौर पर पढ़ा होता है। और सरकारी स्कूल व कालेजो मे उर्दू की जो खस्ता हाली है . उसके मद्दे नज़र इन अभियार्थियों मे  उर्दू इ सोच समझ बिलकुल भी उत्पन्न नहीं हो पाती यही कारण है कि  अभी तक जो बी टी सी या बी एड सनद याफ्ता उर्दू टीचर नियुक्त हुए है उनके स्कूल मे  जा कर देख लिए जाये, वह उर्दू के अतिरिक्त कुछ और पढ़ाते  पाए जायेंगे और या उन्होंने अपना विषय ही बदल कर कोई अलग रह पकड ली होगी, परन्तु जो मदरसों से पढ़ कर आये अभ्यर्थी मोअल्लिम या यू टी सी करके टीचर बने है। वह अवश्य ही आपको उर्दू पढ़ाते मिल जायेंगे। 1994 मे उर्दू टीचर्स की नियुक्ति के बाद अगर सरकारी स्कूल मे उर्दू जिन्दा है तो वह इसी परकार के उर्दू टीचर्स के कारण है। परन्तु खेद है कि शायद उर्दू के मुखाल्फीन को इस बात की भनक लग गई है अतः मोअल्लिम और यू टी सी डिग्री धारियों पर नौकरी के दरवाज़े बंद करने की कोशिश जरी है। और ये राज्य और केंद्रीय सरकारों की निगरानी मे किया जा रहा है कही टी ई टी की शर्त लगे जा रही है . तो कही इंटर पास अनिवार्य किया जा रहा है। यानि मुखालिफों की ख्वाहिश है कि अगर उर्दू टीचर्स रखे ही जाने है तो वे ऐसे हो जो कम से कम उर्दू जानते हो ताकि आगे चल कर वे स्वयं  उर्दू का जनाज़ा अपने कंधो पर ढोए . एक बार फिर उत्तर परदेश मे मुलायम सिंह की सर्कार कायम हुई है तो मोअल्लिम और यू टी सी अभियार्थी उनकी ओर निगाहे गाड़े हुए है की शायद गत समय की भाति इस बार भी पसमांदा गरीब परन्तु हकीकत मे  उर्दू दा तबके को उर्दू टीचर्स बन्ने का अवसर पर्दान करेंगे।